श्राद्ध पक्ष

अब श्राद्ध पक्ष प्रारंभ हो गया है और यह 23 सितंबर तक चलेगा। इन दिनों में पितरों के निमित्त तर्पण किया जाए तो वे तृप्त होते हैं और हमें आयु, धन, सुख-संपत्ति प्रदान करते हैं।
याज्ञवल्क्य स्मृति में कहा गया है-
आयु: प्रजां धनं विद्यां स्वर्ग मोक्षं सुखानि च।
प्रयत्च्छन्ति तथा राज्यं प्रीता नृणां पितामहा:॥
- याज्ञ.स्मृति 10/38-39
अर्थात्- पितर श्राद्ध से तृप्त होकर आयु, प्रजा, धन, विद्या, स्वर्ग, मोक्ष, राज्य एवं अन्य सभी सुख भी देते हैं। 
कूर्म पुराण कहता है श्राद्ध से बढ़कर कोई कल्याणकारी नहीं है। यम स्मृति में कहा गया है-
आयु: पुत्रान् यश: स्वर्ग कीर्ति पुष्टि बलं श्रियम्।
पशून् सौख्यं धनं धान्यं प्राप्रुयात् पितृपूजनात्॥

अर्थात- पितृपूजन से आयु, पुत्र, यश, स्वर्ग, कीर्ति, पुष्टि, बल, धन-धान्य आदि की प्राप्ति होती है।



श्राद्ध का रहस्य
श्राद्ध का महत्व वैदिक काल से ही रहा है। सूत्र साहित्य में श्राद्ध न करने वाले व्यक्ति को नास्तिक कहा गया है। पितरों की शांति न होने पर कुल में पितृदोष उत्पन्न होता है। पितृदोष से अनेक प्रकार की व्याधियां तथा अशांति होती हैं। इसीलिए श्राद्ध कर पितरों को तृप्त किया जाता है। श्राद्ध में अर्पित पदार्थ किस तरह पितरों तक पहुंचते हैं इसका विषद् विवेचन शास्त्रों में हुआ है। स्कंदपुराण के अनुसार राजा करंधम और महायोगी महाकाल के संवाद में इसका महत्व प्रकट हुआ है।
मनुष्य में पंचभूत तत्व और मन, बुद्धि, प्रकृति और अहंकार नौ तत्वों के साथ दसवें तत्व के रूप में भगवान पुरुषोत्तम निवास करते हैं। यही पितृ कहे जाते हैं। सूक्ष्म रूप में रहने वाले पितर उन्हें अर्पित किए जाने वाले पदार्थों का सार शब्द, गंध, भावना जैसे सूक्ष्म रूप में ग्रहण करते हैं। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं को पितरों का राजा अर्यमा कहा है। इस प्रकार श्राद्ध के माध्यम से हम परमात्मा को ही पूजते हैं। 

श्राद्ध के अधिकारी

पिता का श्राद्ध पुत्र को ही करना चाहिए। पुत्र न हो तो श्राद्ध करें। पत्नी के भी अभाव में सहोदर भाई और उसके भी अभाव में संपिण्डों को श्राद्ध करना चाहिए। जामाता एवं दौहित्र भी श्राद्ध के अधिकारी हैं। दत्तक पुत्र एवं अनुपवीत पुत्र भी श्राद्ध का अधिकारी है। कोई न होने पर राजा को उसके धन से श्राद्ध करना चाहिए।

श्राद्ध का अर्थ

श्रद्धापूर्वक किए जाने के कारण इसका नाम श्राद्ध पड़ा। नंद पंडित ने श्राद्धकल्पलता में कहा है पितरों के उद्देश्य से श्रद्धा एवं आस्तिकतापूर्वक पदार्थ का त्याग श्राद्ध है। वेदों में बताए गए पात्रों में पितरों के उद्देश्य से श्रद्धापूर्वक द्रव्य त्याग के कर्मों को श्राद्ध कहा जाता है। गौड़ीय श्राद्धप्रकाश के अनुसार देश-काल पात्र में पितरों के उद्देश्य से श्रद्धापूर्वक हविष्यान्न, तिल, कुश तथा जल आदि का त्याग-दान श्राद्ध है। उपरोक्त परिभाषाओं के अनुसार पितरों 

महालया का अर्थ

शास्त्रों के अनुसार वर्ष में श्राद्ध के 72 अवसर आते हैं। लेकिन भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष में किए जाने वाले श्राद्ध विशेष प्रसिद्ध हैं। ये महालय श्राद्ध भी कहलाते हैं। मह का अर्थ होता है उत्सव का दिन और आलय यानी घर। इस कृष्ण पक्ष में पितरों का निवास माना गया है। इसलिए इस काल में पितरों की तृप्ति के लिए श्राद्ध किए जाते हैं। भाद्रपद कृष्ण पक्ष में जिस दिन चंद्र भरणी नक्षत्र में रहता है उस दिन किए गए श्राद्ध को 'गया श्राद्ध' के तुल्य माना गया है।

श्राद्ध का सबसे अच्छा पक्ष है अपने प्रिय और निकट संबंधियों के प्रति स्नेह और श्रद्धा की भावना का विकास होना। श्राद्ध के माध्यम से पितरों को याद कर उनकी स्मृति में बंधु-बांधवों, मित्रों, विद्वानों को आमंत्रित कर भोजन कराना, दान देना हमारी संस्कृति का अभिन्न हिस्सा है। भाद्रपद के कृष्ण पक्ष को हम महालया पर्व के रूप में मनाते हैं। श्राद्ध के माध्यम से यह पर्व हमें अपने पितरों से जोड़ता है। हमारी परंपरा में तीन ऋणों से उऋण होने को मनुष्य का कर्तव्य कहा गया है। ये हैं- देव ऋण, ऋषि ऋण और पितृ ऋण। पितृ ऋण को लेकर यह आम धारणा है कि संतान उत्पन्न करने से यह ऋण उतरता है। संतान का अर्थ है- सम्यक विस्तार अर्थात अच्छी तरह फैलाव।
श्राद्ध में तीन गुण प्रशंसनीय है- पवित्रता, अक्रोध और अचापल्य (जल्दबाजी नहीं करना)। इसके माध्यम से हमारी परंपरा हमें उत्तम आचरण की शिक्षा देती है और उस धर्म के मार्ग पर चलने के लिए तैयार करती है, जिसका लक्ष्य मोक्ष होता है।


पितृ ऋण का वास्तविक अर्थ है परिवार भाव के प्रति दायित्व का बोध। हम व्यक्ति को नहीं परिवार को समाज की सबसे छोटी इकाई मानते हैं। व्यक्ति अपने आप में इकाई नहीं है, वह परिवार से संयुक्त होकर ही इकाई है। यह परिवार भावना का ही विकास वसुधैव कुटुम्बकम् में परिलक्षित होता है। पितृ ऋण का मतलब अतीत पूजा नहीं अपितु अच्छे भविष्य की कामना है। इन अनुष्ठनों में पढ़े जाने वाले मंत्रों में कहा जाता है- 
हमारा गोत्र बढ़े, हमें देने वाले देवता बढें, वेद-रूप ज्ञान की वृद्धि हो, संतान की वृद्धि हो। श्रद्धा मुझसे अलग न हो। सदा देने के लिए हमारे पास बहुत हो, प्रचुर मात्रा में हो। हम सदा अतिथि के सत्कार का लाभ लें। हमसे लोग मांगने वाले हों, हमें किसी से मांगना न पड़े। ये मंगलकामनाएं पूरी हों।
-श्राद्ध संग्रह
इस तरह श्राद्ध की परंपरा हमें न केवल अपने प्रियजनों और परिवार के प्रति स्नेह, श्रद्धा और आदर भाव से ओतप्रोत करतीे हैं अपितु भविष्य के प्रति भी सचेत करती है। 

श्राद्ध में करें ये उपाय...
श्राद्ध पक्ष में ब्राह्मणों को अन्न का दान करना चाहिए।
यदि कोई व्यक्ति अन्न का दान करने समर्थ न हो तो ब्राह्मणों को या किसी जरुरतमंद व्यक्ति को फल, सब्जियां एवं थोड़ी-से धन का ही दान किया जा सकता है।
यदि कोई व्यक्ति ऊपर दिए गए दोनों काम भी नहीं कर सकता है तो किसी भी ब्राह्मण को या किसी जरुरतमंद व्यक्ति को प्रणाम करके एक मुट्ठी काले तिल का दान कर दे।

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